Saturday, January 28, 2017

पन्ना दाई

Author-सत्य नारायण गोयंक

चल पड़ा दुष्ट बनवीर क्रूर, जैसे कलयुग का कंस चला
राणा सांगा के, कुम्भा के, कुल को करने निर्वश चला

उस ओर महल में पन्ना के कानों में ऐसी भनक पड़ी
वह भीत मृगी सी सिहर उठी, क्या करे नहीं कुछ समझ पड़ी

तत्क्षण मन में संकल्प उठा, बिजली चमकी काले घन पर
स्वामी के हित में बलि दूंगी, अपने प्राणों से भी बढ़ कर

धन्ना नाई की कुंडी में, झटपट राणा को सुला दिया
ऊपर झूठे पत्तल रख कर, यों छिपा महल से पार किया

फिर अपने नन्हें­मुन्ने को, झट गुदड़ी में से उठा लिया
राजसी वसन­भूषण पहना, फौरन पलंग पर लिटा दिया

इतने में ही सुन पड़ी गरज, है उदय कहां, युवराज कहां
शोणित प्यासी तलवार लिये, देखा कातिल था खड़ा वहां

पन्ना सहमी, दिल झिझक उठा, फिर मन को कर पत्थर कठोर
सोया प्राणों­का­प्राण जहां, दिखला दी उंगली उसी ओर


छिन में बिजली­सी कड़क उठी, जालिम की ऊंची खड्ग उठी
मां­मां मां­मां की चीख उठी, नन्हीं सी काया तड़प उठी

शोणित से सनी सिसक निकली, लोहू पी नागन शांत हुई
इक नन्हा जीवन­दीप बुझा, इक गाथा करुण दुखांत हुई

जबसे धरती पर मां जनमी, जब से मां ने बेटे जनमे
ऐसी मिसाल कुर्बानी की, देखी न गई जन­जीवन में

तू पुण्यमयी, तू धर्ममयी, तू त्याग­तपस्या की देवी
धरती के सब हीरे­पन्ने, तुझ पर वारें पन्ना देवी

तू भारत की सच्ची नारी, बलिदान चढ़ाना सिखा गयी
तू स्वामिधर्म पर, देशधर्म पर, हृदय लुटाना सिखा गयी

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